________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २७१ ।।
यह सूत्र है । इहां फेरी कहै , देशकालका नियम तहांही कह्या है । ताकू कहिये, सूत्रविर्षे देशकालका नियम कह्या नाही, तातें इस मूत्रतें जान्या जाय है ।।
आगै, जो कर्मके संगते रहित असंग जो आत्मा ताकै तौ प्रतिबंधरहित लोकके अंतताई गमनकालके नियमरूप जानिये है । बहुरि देहसहित जो संसारी जीव है ताकी गति प्रतिबंध सहित है कि मुक्त आत्माकीज्यों सूधी है? ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं
॥ विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्व्यः ॥ २८॥ याका अर्थ- संसारी जीवकी गति विग्रहसहित है मोडा खाय है । तहां च्यारि समयकै पहली पहली तीन मोडारूप है ॥ इहां प्राक् चतुर्थ्यः ऐसा शब्द तौ काल जो समय ताका नियमकै अर्थि है । प्राक् शब्दका मर्यादा अर्थ है । तहां चौथा समय पहली विग्रहवान गति हो है । चौथाविर्षे विग्रह कहिये मोडा नांही है । इहां पूछे है, जो, चौथे समये विग्रहगति काहेरौं नाही? ताका उत्तर , जो, प्राणी, सर्वोत्कृष्ट विग्रह है निमित्त जाईं ऐसा क्षेत्रकू निष्कुट ऐसी संज्ञा है, तहां उपजनां होय तहां अनुश्रेणिका अभावतें इपुगतिका अभाव होतें निष्कुटक्षेत्र पहुंचनेकू तीन जामें मोडा || ऐसा त्रिविग्रहगति आरंभै है । तिस सिवाय ऐसा क्षेत्र नांही जामैं मोडा खाय पहुंचै । तातें तीनही
For Private and Personal Use Only