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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदंजीकृता । द्वितीय अध्याय || पान २७६ ।।
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सहित होय सो सचित्त कहिये । बहुरि शीत है सो स्पर्शका विशेष है । जैसें वर्णका भेद शुक्ल | तहाँ शीत ऐसा द्रव्यवचनभी है गुणवचनभी है । तातें शीत कहनेतें शीतल द्रव्यभी लेना । बहुरि संवृत नाम आच्छादित ढकेका है । जाका प्रदेश लखने में न आवै । बहुरि इतरकरि सहित होय ताकूं सेतर कहिये । प्रतिपक्षी सहित होय ते अचित्त उष्ण विवृत बहुरि दोऊ मिलै तहां मिश्र कहिये | सचित्ताचित शीतोष्ण संवृतविवृत ऐसे नव भये । इहां सूत्र में चशब्द है सो मिश्रकुंभी योनिही कहै है । जो चशब्द न होय तौ सचित्तादिक कहे तिनिकाही विशेषण मिश्र शब्द ठहरे ता मिश्रभी योनि है ऐसा समुच्चय चशब्द करे है । बहुरि एक ऐसा शब्द है सो वीप्सा कहिये फेरि फेरि ग्रहणके अर्थमैं है । सो मिश्रका ग्रहण तीनूं जायगा अनुक्रमरूप लेना जनावै है । तातें ऐसा जान्या जाय है जो सचित्त, अचित्त, मिश्र, शीत, उष्ण, मिश्र, संवृत, विवृत, मिश्र ॥ बहुरि ऐसें मति जानू, जो, सचित्त शीत याका मिश्र इत्यादि । बहुरि सूवमैं तत् शब्द है सो ये योनि जन्म के प्रकार हैं ऐसा जनावनेकूं है । ए नव योनि तीन प्रकार जन्म कहै तिनिही प्रकार हैं ऐसे जाननां कोई कहै है, योनि अरु जन्मविषै भेद नांही अविशेष है। ताका समाधान - आधा आयका भेदतें भेद है । इहां योनि तौ आधार है जन्मके प्रकार हैं ते आधेय हैं । जातें सचित्त
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