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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ।। पान २६९ ॥ तैसें ? ऐसें पूछे सूत्र कहे हैं--
॥ अनुश्रोणि गतिः ॥ २६ ॥ ___ याका अर्थ- जीवनिका तथा पुद्गलनिका गमन आकाशके श्रेणीबंध प्रदेशनिविही होय है, विदिशारूप न होय है ॥ लोकके मध्यतें लगाय ऊर्ध्व अधः तिर्यक् आकाशके प्रदेशनिका अनुक्रमतें पंक्तिरूप अवस्थान ताळू श्रेणी कहिये । इहां अनुशब्द श्रेणीके अनुक्रमकू कहै हैं। जीवकी तथा पुद्गलनिकी गति सूधी होय है ऐसा अर्थ है । इहां कोई पूछ है, जीवका तो अधिकार है, इहां पुद्गलका ग्रहण कैसैं कीया ? ताका उत्तर, जो, इहां गमनका ग्रहण है सो गमन जीवकभी है पुद्गलकैभी है । तातें दोऊका ग्रहण करना । जो जीवनिहाँकै गति मानिये तो गतिग्रहण अनर्थक होय जातें गतिका अधिकार हैही। बहुरि उत्तरसूत्रविर्षे जीवका ग्रहण है तातें इहां पुद्गलकीभी प्रतीति होय है । बहरि कोई पछै है, चंद्रमा आदि ज्योतिषी देवनिकै मेरुकी प्रदक्षिणाके कालविर्षे तथा विद्याधरादिककै विनाश्रेणीभी गमन है । विदिशारूप वक्रगमनभी है । ऐसें कैसे कह्या ? जो, श्रेणीबंधही गमन है। ताका उत्तर- इहां कालका तथा क्षेत्रका नियमकरि कहा है। तहां जीवनिकै मरणका कालमैं अन्यभवकू गमन हो है । तथा मुक्तजीवनिकै ऊर्ध्व गमन हो है । तिस
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