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॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २६७ ॥ अभाव होतेभी मनके सद्भावतें संज्ञीपणा बणै है ॥ इहां विशेष, जो, शिक्षा क्रिया आलापका ग्रहणरूप संज्ञा जाकै होय सोही संज्ञी है । बहुरि केई कहे हैं, जाकै स्मरण होय सो संज्ञी है, तहां ऐसा जाननां, जो, स्मरणसामान्य तौ सर्वही प्राणीनिकै है । तत्कालका हूवा वच्छा माताके स्तनकू लगि जाय है, सो पूर्व आहारकरही आया है । तातें आहारकी अभिलाषारूप संस्कारका स्मरण वाकै है । इत्यादि उदाहरण सर्वजीवांके अनेक जन्ममैं अनुभवता आया है । सो अभिलाषारूप संज्ञा तो सर्वहीकै स्मरणसामान्य है। बहुरि स्मरणविशेष सो शिक्षा क्रिया आलापविर्षे है, हैही । ऐसे जीवका स्वरूपतत्त्व स्वलक्षणभेद इंद्रिय मन अर इंद्रिय मनके विषय स्वामी कहे, ते सामान्य तौ संग्रहनयकरि विशेष व्यवहारनयकरि दोऊ प्रमाणकरि जानने ।
आगें पूछे है, हिताहितका विचार प्राणीनिकै मनके विचारपूर्वक है, तो नवा शरीरप्रति ग्रहणकू उद्यमी भया अगिला शरीर छूटि गया तब मन तो है नांही, तो याके कर्मका आस्रव होय है । सो काहे हो है? ऐसें पूछे उत्तर कहै हैं--
॥ विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥२५॥ याका अर्थ--विग्रहगति कहिये अंतरालविर्षे अनाहारक अवस्थामें कार्मणयोग है । विग्रह
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