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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय || पान २६५ ॥
॥ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥ २३ ॥
याका अर्थ - कृमि कहिये लट आदिक, पिपीलिका कहिये कीडी, आदिक, भ्रमर कहिये भौरा आदिक, मनुष्य आदिक इनिकै स्पर्शन पीछे एक एक इंद्रिय वधती है । एक एक ऐसा वीप्सा कहिये बारबार कहणेका अर्थमें दोय बार एकशब्द कया है । तहां कृमिकूं आदिकर अरु इंद्रियविषै स्पर्शनं आदिकरि एक एक वधता जोडनां । बहुरि आदिशब्द सर्वकै जुदा जुदा कहनां । इहां कृमि कहिये लटकूं आदिकरि जीवनिकै रसनकरि अधिक स्पर्शन है । स्पर्शन रसन ए दोय इंद्रिय हैं । बहुरि पिपीलिका कहिये कीडी आदिक जीवनिकै स्पर्शन रसन घाण ऐसे तीन इंद्रिय हैं । बहुरि भ्रमर आदिक जीवनिकै स्पर्शन रसन त्राण चक्षु ऐसे च्यारि इंद्रिय हैं । बहुरि मनुष्य आदि जीवनकै स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु श्रोत्र ऐसे पांच इंद्रिय हैं। ऐसे एकएक बधता यथासंख्य जननां । इनकी उत्पत्ति स्पर्शनकी उत्पत्तिकीज्यों कर्मनके निमित्ततें हो है । तहां आगे आगे जे इंद्रिय जिनके नाही, तिनिकै तिनि इंद्रियावरण कर्मका सर्वघातिस्पर्द्धकनिका उदय जानि लेना ॥ आगे, ए कहे जे दोय भेदरूप तथा इंद्रियभेदकार पंचप्रकार संसारी जीव तिनिविषै पंचेंद्रिय के भेदन कहे, तिनिकी प्रतिपत्तिकै अर्थि सूत्र कहै हैं
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