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।। सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ।। पान २६६ ॥
॥सज्ञिनः समनस्काः ॥२४॥ याका अर्थ- पंचेंद्रिय जीवनिविर्षे जे मनसहित हैं ते संज्ञी हैं | मन तो पूर्व कह्या, सो जाननां । तिस मनकरि सहित होय ते समनस्क ते संज्ञी हैं । संज्ञीके कहनेकी सामर्थ्यहीनै अवशेष संसारी जीव रहे ते असंज्ञी हैं ऐसा सिद्ध भया । तातें याका न्यारा सूत्र न कह्या । इहां कोई तर्क करै है, जो, संज्ञी ऐसा कहनेतेही अर्थ तौ आय गया । ताका समनस्क ऐसा विशेषण तौ अनर्थक है । जाते मनका व्यापार हितकी प्राप्ति अहितका परिहारकी परीक्षा करना है, सो संज्ञाभी सोही है । ताका समाधान, जो, ऐसा कहनां युक्त नाही । जाते संज्ञा ऐसा शब्दके अनेक अर्थ हैं तहां व्यभिचार आवै है। तहां प्रथमतौ संज्ञा नामकू कहिये है । सो नामरूप संज्ञा जाकै होय सो संज्ञी ऐसा कहते सर्वही प्राणी नामसहित हैं तहां अतिप्रसंग भया । बहुरि कहै संज्ञा संज्ञानं कहिये भले ज्ञानकुं कहिये है । तो तहांभी अतिप्रसंग है । जातें संज्ञान सर्वही प्राणिनीकै है । बहुरि आहार आदि अभिलाषकुंभी संज्ञा कहिये है। तहां भी अतिप्रसंगही होय । जाते यहभी सर्वही प्राणी पाईये है । तातें समनस्कविशेषण सफल है । बहुरि ऐसै कहे गर्भके विर्षे तिष्ठता जीव तथा अंडेविर्षे तिष्ठता तथा मूर्छित भया तथा सूता इत्यादि अवस्थारूप प्राणीनिकै हित अहितकी परीक्षाका
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