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ఆకలగకుంతలందరకుండలండనుందనిలయనని
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २२६ ॥ स्वचैतन्यमात्र माने है । बहुरि बुध्यादिक विशेषगुणकाभी वैशेषिक मतवाला पुरुषकै अभाव माने है । बहुरि वेदांतमती आनंदमात्र ब्रह्मस्वरूप मान है। बौद्धमती चित्कू प्रभाकर मात्र मानै है । सो सर्वथा एकांततें यहु बणे नाही । पंचभावरूपही जीवका स्वरूप प्रमाणसिद्ध है ऐसा जाननां ॥
आगें शिष्य पूछे है, तिस आत्माके पंच औपशमिकादिक भाव कहे ते कहा उत्तरभेदसहित है कि अभेदरूप है ? ऐसै पछै उत्तर कया, जो, भेदसहित है । फेरि पूछै, जो, ऐसे है तो तिनिके भेद कहो । ऐसें पूछे आचार्य सूत्र कहै हैं--
॥द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥२॥ याका अर्थ-- पहलै सूत्रमैं पंच भाव कहै । तिनके अनुक्रमतें दोय नव अठारह इकईस तीन ए भेद हैं। तहां दोय आदिक संख्याशब्दनिका द्वंद्वसमासकरि अरु भेदशब्दकै स्वपदार्थवृत्ति तथा अन्यपदार्थवृत्ति जाननी । कैसै सोही कहिये है । दोय बहुरि नव बहुरि अठारह बहुरि इकईस बहुरि तीन ऐसे तो बंदवृत्ति भई । बहुरि तेही भेद ऐसे स्वपदार्थवृत्ति भई । ए कहे तेही भेद हैं।
ऐसें भेदशब्द संख्याहीका संबंधी भया । तब ऐसे संबंध होय पांचों भावनिका बहुवचन षष्ठीविभक्ति | करि कहनां, जो, ये भेद पांच भावनिके हैं । बहुरि ते हैं भेद जिनके इहां अन्यपदार्थवृत्ति भई ।
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