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॥ सर्वार्थासद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २३५ ॥
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है ताते औदयिक है । बहुरि कषाय च्यारि भेद क्रोध, मान, माया, लोभ । तेभी अपनी अपनी मोहनीयप्रकृतिके उदयतें होय हैं तातें औदयिक हैं । लिंग तीन भेद स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद । तेभी अपनी अपनी प्रकृतिकै उदयतें होय हैं तातें औदयिक हैं । मिथ्यादर्शन मिथ्यात्वनाम मोहनीयकी प्रकृति के उदयतें होय है । याकरि परिणाम तत्त्वार्थका अश्रध्दानरूप है । बहुरि ज्ञानावरण नामा कर्मके उदयतें पदार्थनिका ज्ञान न होय सो अज्ञान । बहुरि चारित्रमोहके सर्वघातिकस्पर्द्धकनिके उदयतें असंयम होय सो औदयिक असंयत है । बहुरि सामान्यकनिके उदयकी अपेक्षारूप असिध्दपणां औदयिक है । बहुरि लेश्या द्रव्यभावरूप दोय है । सो इहां जीवके भावका अधिकार है ताते द्रव्यलेश्या न लेणी । भावलेश्या लेणी । सो कषायनिके उदयकरि रंजित जो योगनिकी प्रवृत्ति सो लेश्या है । सो छह प्रकार है । कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल ऐसें । इहां प्रश्न- जो, उपशांतकषाय क्षीणकषाय सयोगकेवली इनिवि शुक्ललेश्या आगममें कही है । तहां कषायका उदयका तौ अभाव है। औदयिकपणा नाही बनेगा। ताका उत्तर आचार्य कहै हैं- जो, यहु दोष इहां नाही है । इहां पूर्वभाव जनावनेकी नयकी अपेक्षा है। जो योगनिकी प्रवृत्ति कषायनिकरि अनुरंजित पहलै थी, सोही उपचार” इहां जाननी । ताते औदयिकही कहिये । बहुरि योगके अभावतें
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