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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। द्वितीय अध्याय || पान २५८ ॥
मर्यादा जनावनेकूं नियमका सूत्र कहे हैं
॥ पञ्चेन्द्रियाणि ॥ १५॥
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याका अर्थ -- इंद्रिय पांच हैं | इंद्रियशब्दका अर्थ तौ पहले कह्याही था, जो इंद्र कहिये आत्मा संसारी जीव ताका लिंग कहिये जनावनेका चिन्ह । तथा इंद्र जो नामकर्म ताकरि रचे जे आकार ते इंद्रिय हैं । बहुरि पंच शब्दकार नियम किया, जो इंद्रिय पांचही हैं, हीनाधिक नाही । इहां अन्यमती कहै, जो कर्मइंद्रिय कहिये वचन हाथ पायु उपस्थ इनिकाभी ग्रहण चाहिये । ताकूं कहिये, इहां न चाहिये । जातें इहां आत्माका उपयोगका प्रकरण है । तातैं उपयोग के कारणही ग्रहण चाहिये । क्रिया के साधन नाही कहे। जो क्रियासाधनभी कहिये तौ अनवस्था आवै । अंगोपांग नामा नामकर्मनैं रचे जे क्रियाके साधन ते सर्वही ग्रहण कीये चाहिये । वचनादिक पांचही ग्रहण कैसे होय ? ॥
आगे, तिनि इंद्रियनिके भेद दिखावनेकूं सूत्र कहै हैं
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॥ द्विविधानि ॥ १६ ॥
याका अर्थ -- जे इंद्रिय कहे ते द्रव्येंद्रिय भावेंद्रियकरि दोय प्रकार हैं । इहां विधशब्द है सो
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