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॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २६१ ॥ याका अर्थ-- स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु श्रोत्र ए पांच इंद्रियनिके नाम हैं ॥ इनिके नामनिका निरुक्ति अर्थ कहिये है । लोकवि इंद्रियनिकै पराधीन विवक्षा देखिये है। जैसे लोक कहै है मै इनि नेत्रनिकरि नीकै देखू हूं । तथा मै इनि काननिकरि भलै सुणूं हूं । ताते परतंत्रपणातें स्पर्शनादिककै करण अर्थपणां है सोही कहिये है। वीयांतराय मतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम बहुरि अंगोपांगनामा नामकर्मका उदयका लाभका आलंबनतें आत्मा जाकरि विषयकू स्पर्शे ताकू स्पर्शन | कहिये । ऐसेंही जाकरि अपने विषयकू आस्वादै ताकू रसन कहिये । ऐसेंही जाकरि. सूंघे ताकू | प्राण कहिये । ऐसेंही जाकर देखै ताकू चक्षु कहिये । ऐसेंही जाकरि सुणै ताश्रोत्र कहिये । बहुरि लोकविर्षे स्वतंत्र कहिये स्वाधीन विवक्षाभी है । जैसे लोक कहै है ए मेरे नेत्र नीकै देखे हैं । ए मेरे कान नीकै सुणै हैं इत्यादि । तातें स्वतंत्र अर्थ कीजिये तब कर्ता अर्थभी होय है । जैसैं जो विषयकं स्पशैं सो स्पर्शन कहिये । ऐसेंही जो आस्वादै ता; रसन कहिये । सूंघे ताकू प्राण कहिये । देखै ताकू चक्षु कहिये । सुणे ताकू श्रोत्र कहिये । इनिका सूत्रमैं संज्ञाका अनुक्रम है । सो एकेंदियादि जीवनिकै एक एक वधै ताका अनुक्रम जनावनेके अर्थि है सो आगे कहसी ॥ इहां विशेष , जो, स्पर्शनका आदिविर्षे ग्रहण कीया है । जाते यह शरीरव्यापी है । रसन प्राण
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