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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। द्वितीय अध्याय ॥ पान २४९ ॥
| ताकू एक भवपरिवर्तन कहिये । इहां उक्तं च गाथा है ताका अर्थ- यहु जीव भवपरिवर्तननाम | संसारविर्षे मिथ्यात्वकरि सहित हृवा संता नरककी जघन्य आयुर्ते लगाय अवेयकनिकी उत्कृष्ट आयुपर्यंत अनेकवार भवनिकी स्थिति आयु पाय पाय भ्रम्या है |
आगें भावपरिवर्तन कहिये हैं। तहां जीवके परिणामकू भाव कहिये । सो कोई जीव संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि ज्ञानावरण कर्मकी प्रकृतिकी अपने योग्य जघन्यस्थिति अंतःकोटा कोटी कहिये कोडाकोडी सागरकै नीचे कोडिकै ऊपरिकीकू प्राप्त होय । ताकू कारण कषायाध्यवसायस्थान असंख्यात लोकपरिमाण है । तिनि एक एक स्थानविर्षे अनंतानंत अविभागपरिच्छेद हैं। जिनिमें अनंतभागवृद्धि असंख्यातभागवृद्धि संख्यातभागवृद्धि संख्यातगुणवृद्धि असंख्यातगुणवृद्धि अनंतगुणवृद्धि तथा तैसेंही हानिभी । ऐसें षट् स्थानप्रति हानिवृद्धि संभव ऐसे है । ते इस अंतःकोटाकोटी सागरकी स्थिति बंधने कू कारण जीवके कषायभावके स्थान असंख्यात लोककै जेते प्रदेश होय तेते हैं । तहां इनि कषायस्थाननिविर्षे एकएकविर्षे अनुभागबंधाध्यवसायस्थान जे अनुभागबंधकू का. रण जे परिणाम ते असंख्यात लोकपरिणाम हैं। तहां कोई जीव जघन्यस्थितिकूबांधै तहां वाकू कारण | जे कषायस्थान तिनिमैसूं जघन्यस्थान लीजिये । बहुरि तिसि कषायस्थानविर्षे अनुभावकू कारण जे
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