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॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय ॥ पान २५३ ॥
सूत्रविर्षे संसारीका ग्रहण निरर्थक है । जातें पहलै सूत्र में संसारीका नाम कह्या है, तातें प्रकरणतेही जानिये है । ताका समाधान, जो, निरर्थक नाही । जातें पहलै याकै अनंतर सूत्र है , तामें समनस्क अमनस्क कहे, ते संसारी ऐसे जाननेके अर्थि हैं । जो पूर्वसूत्रका विशेषण न करिये तो ताकै पूर्व सूत्र “संसारिणो मुक्ताश्च ,, ऐसा है , सो इस सूत्रका यथासंख्य संबंध होय तब समनस्क तौ संसारी अमनस्क मुक्त ऐसा अनिष्ट अर्थ होय । तातें इस सूत्रमें संसारीका आदिविर्षे ग्रहण युक्त है ।। बहुरि यहु पूर्वापेक्षभी है, तैसेंही अगलीभी अपेक्षा है । जाते संसारी दोय प्रकारके हैं त्रस हैं स्थावर हैं । तहां बस नामा नामकर्मकी प्रकृतिके उदयके वशतें भये ते त्रस हैं । बहुरि स्थावरनामा नामकर्मकी प्रकृतिके उदयके वशतै भये ते स्थावर हैं । इहां कोई कहै ; इनि शब्दनिका अर्थ तो ऐसा है, पीडित होय भयसहित होय भागै चालै ते त्रस बहुरि तिष्ठनेहीका स्वभाव जिनिका होय ते स्थावर सो ऐसा अर्थही क्यों न कहौ ? ताका समाधान ऐसा कहे, आगमतें विरोध आवै है । आगमविर्षे ऐसा कह्या है, कायानुवादविर्षे जो त्रस नाम दींद्रियतें लगाय सयोगकेवलीपर्यंत है। तातें चलने न चलनेकी अपेक्षातें त्रस स्थावरपणां नाही है। कर्मोदयकी अपेक्षाहीतें है । बहुरि इस सूत्रमें त्रसका ग्रहण आदिवि कीया है सो याकै अक्षर अल्प है तथा पूज्य प्रधान है तातें है
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