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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय || पान २५५ ॥
॥ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥ १३ ॥
याका अर्थ - पृथिवी अप् तेज वायु वनस्पति ए पंच स्थावर जीव हैं । स्थावर नामा नामकर्मकी प्रकृति के भेद पृथिवीकायिकादि कहे । ताके उदय के निमित्ततें जीवनिकै पृथिवीकायिकादिक संज्ञा जाननी । इनिके शब्द पृथनादिक धातुनितें निपजै हैं । तौभी रूढिके वशतें पृथनादिक कहिये विस्तारादिक अर्थकी इहां अपेक्षा न करणी । इनि पृथिवी आदि के आर्ष कहिये ऋषिनिके आगमविषै च्यारि च्यारि भेद कहे हैं । सोही कहिये पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक, पृथिवीजीव । अपू, अप्काय, अप्कायिक, अप्जीव । तेज, तेजकाय, तेजकायिक, तेजजीव । वायु, वायुकाय, वायुकायिक, वायुजीव । वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक, वनस्पतिजीव ऐसैं । तहां अचेतनपुद्गल अपने स्वभावही कठिणता आदि गुणसहित है ताकूं तो पृथिवी कहिये | जातैं अचेतनपणांतें पृथिवीकाय नामकर्म प्रकृतिके उदयविनाभी पृथनक्रिया जो फैलाना आदि क्रियाताकर सहित पृथिवी ही । अथवा दूसरा अर्थ यहु, जो, जामैं अगिले तीनूं भेद पाइये ऐसा सामान्यकुंभी पृथिवी कहिये । बहुरि पृथिवीकायिक जीव जामैं था सो मूवा ताका शरीर रह्या ताकूं पृथिवीकाय कहिये । जैसें मूवा मनुष्यका काय होय तैसें । बहुरि पृथिवीकाय जाकै
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