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॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २५४ ।।
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पूज्यपणा सर्व उपयोग याकै संभव है ताकी अपेक्षा है ।
इहां विशेष; जो, चलनेहीकी अपेक्षा त्रस कहिये तौ पवनादिक त्रस ठहरे, गर्भादिकविष स्थावरही ठहरे । बहुरि तिष्ठनेही की अपेक्षा स्थावर कहिये तौ पवनादिक स्थावर न ठहरे, तातें कर्मोदय अपेक्षाही युक्त है । बहुरि सर्वजीवनिकं स्थावरही कहिये त्रस न कहिये । जातें जीव क्रिया रहित सर्वगति है तो जीवतत्व के नाना भेद न ठहरे । तातें क्रियासहित कथंचित् असर्वर्गतिहि माननां । बहुरि सर्वजीवनिकं त्रसही मानिये स्थावर न मानिये तौ वनस्पतिकायिकादिक जीव न ठहरै । जातैं चलतेकूंही जीव कहै तब सूता मूच्छित अंडे में तिष्ठताभी जीव न ठहरै | जो कहै तिनका आकारविशेष है, तातें जीव हैं तो ऐसे वनस्पतिकेभी जलादि आहार पावने न पावनेतें हरित होना सूकी जाना ऐसें लक्षणतें जानिये ए जीव हैं । तातें स्थावर त्रस दोऊही भेद माननां युक्त है ॥
आगे
का भेद पहली कहना अनुक्रम है, ताकूं उल्लंघ्य एकेंद्रियस्थावर के भेद प्रतिपत्ति कै
सूत्र हैं हैं । जातें एकेंद्रिय के भेद बहुत नाहीं कहने हैं । तातें तिनिकूं पहली कहि जाय है
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