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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org ॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय ॥ पान २५३ ॥ सूत्रविर्षे संसारीका ग्रहण निरर्थक है । जातें पहलै सूत्र में संसारीका नाम कह्या है, तातें प्रकरणतेही जानिये है । ताका समाधान, जो, निरर्थक नाही । जातें पहलै याकै अनंतर सूत्र है , तामें समनस्क अमनस्क कहे, ते संसारी ऐसे जाननेके अर्थि हैं । जो पूर्वसूत्रका विशेषण न करिये तो ताकै पूर्व सूत्र “संसारिणो मुक्ताश्च ,, ऐसा है , सो इस सूत्रका यथासंख्य संबंध होय तब समनस्क तौ संसारी अमनस्क मुक्त ऐसा अनिष्ट अर्थ होय । तातें इस सूत्रमें संसारीका आदिविर्षे ग्रहण युक्त है ।। बहुरि यहु पूर्वापेक्षभी है, तैसेंही अगलीभी अपेक्षा है । जाते संसारी दोय प्रकारके हैं त्रस हैं स्थावर हैं । तहां बस नामा नामकर्मकी प्रकृतिके उदयके वशतें भये ते त्रस हैं । बहुरि स्थावरनामा नामकर्मकी प्रकृतिके उदयके वशतै भये ते स्थावर हैं । इहां कोई कहै ; इनि शब्दनिका अर्थ तो ऐसा है, पीडित होय भयसहित होय भागै चालै ते त्रस बहुरि तिष्ठनेहीका स्वभाव जिनिका होय ते स्थावर सो ऐसा अर्थही क्यों न कहौ ? ताका समाधान ऐसा कहे, आगमतें विरोध आवै है । आगमविर्षे ऐसा कह्या है, कायानुवादविर्षे जो त्रस नाम दींद्रियतें लगाय सयोगकेवलीपर्यंत है। तातें चलने न चलनेकी अपेक्षातें त्रस स्थावरपणां नाही है। कर्मोदयकी अपेक्षाहीतें है । बहुरि इस सूत्रमें त्रसका ग्रहण आदिवि कीया है सो याकै अक्षर अल्प है तथा पूज्य प्रधान है तातें है For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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