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॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २५१ ॥
एकएक अनुभागस्थानविर्षे असंख्यात योगस्थान होय तब तीसरा स्थितिस्थान समयाधिक लीजिये । ऐसेंही ज्ञानावरणीयकर्मकी उत्कृष्टस्थिति तीस कोडाकोडी सागरकी है । तिनिके समयाधिकक्रमकरि पूर्व कहे तैसे कषायस्थान होय बीचिबीचिमैं और और भाव जीवके होय ते न गिणिये । ऐसे सर्वकर्मकी स्थिति मूलप्रकृति तिनिकी तथा उत्तरप्रकृतिनि... कारण कषायस्थान अनुभागस्थान योग" स्थानकी पलटनी अनुक्रमरूप होय चुकै । ताकू जो अनंतानंतकाल वीतै तब एक भाव परिवर्तन कहिये । इनिका काल उत्तरोत्तर अनंतानंतगुणां जाननां । द्रव्यपरिवर्तनका अनंतकाल , तातें अनंतगुणां क्षेत्रपरिवर्तनका काल, तातें अनंतगुणां कालपरिवर्तनका काल, तारौं अनंतगुणां भवपरिवर्तनका काल, तातें अनंतगुणां भावपरिवर्तनका काल , ऐसें जाननां । इहां उक्तं च गाथा है ताका अर्थ-मिथ्यात्वकरि जीव या भावसंसारविर्षे भ्रमता सर्व प्रक्रति स्थिति अनुभाग प्रदेशबंधक जेते स्थान हैं ते सर्वही पाये। ऐसें पंचप्रकार संसारते जे जीव रहित भये सिद्ध भये ते मुक्तजीव कहिये । इहां संसारीनिका पहले ग्रहण कीया है। जाते मक्तका नाम संसारपूर्वक है। तथा संसा
रीनिके भेद बहुत हैं। तथा संसारी जीव अनुभवगोचर हैं। मुक्त अत्यंतपरोक्ष है। ऐसाभी हेतु” | संसारीनिका पहलै ग्रहण कीया है ।।
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