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॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय ॥ पान २४७ ॥
कका क्षेत्रकूं परसिकरि अनुक्रमतें उपजै अनुक्रमविना उपजै सो न गिणिये । ऐसे सर्वलोक अपना जन्मक्षेत्र करै ताकूं जेता कछु अनंतकाल वीतै ताकूं एक क्षेत्रपरिवर्तन कहिये । इहां उक्तं च गाथा है । ताका अर्थ -- इस क्षेत्रसंसारविषै भ्रमता यहु जीव सो अनंत अवगाहनारूप शरीरकूं पाय इस सर्वलोकका क्षेत्रवि अनुक्रमतें उपज्या तहां ऐसा क्षेत्र न रह्या जहां न उपज्या ॥
आ कालपरिवर्तन कहिये हैं । कोई जीव उत्सर्पिणी कालकै पहलै समय उपज्या अपनी आयु पूरी भये मृवा । बहुरि सोही जीव दूसरे उत्सर्पिणी कालकै दूसरे समय उपज्या फेरि आयु पूर्णकरि मूवा । बहुरि सोही जीव तीसरे उत्सर्पिणी कालकै तीसरे समय उपज्या | ऐसेही सोही जीव चौथे उत्सर्पिणी कालकै चौथे समय जन्म्यां । ऐसैंही अनुक्रमतें दशकोडा कोडि सागरका उत्सर्पिणी कालका समयनिविषै निरंतर जन्म लेवो कीया बीचिबीचि मैं विना अनुक्रमतें और और समयान मैं जन्म लिया सोनगिणिये । बहुरि ऐसेही अवसर्पिणी कालकै समयनिविषै जन्म लीयां । ताकेभी ऐसेही दशकोडा कोडि सागरकै समय वीतै । बहुरि जैसे जन्म लीया तैसेही मरण तिनि समयनिविषै अनुक्रमतें करै तहां जेता कछु अनंतानंतकाल वीतै ताकूं एक कालपरिवर्तन कहिये । इहां उक्तं च गाथा है ताका अर्थ- यह जीव कालपरिवर्तननामा संसारविषै भ्रमता उत्सर्पिणी अवसर्पि
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