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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २३७ ॥
जाके न होयगे सो अभव्य कहिये । ए तीन भाव जीवकै पारिणामिक हैं । इहां प्रश्न- जो अस्तित्व, नित्यत्व , प्रदेशवत्त्व इत्यादिकभाव हैं तेभी पारिणामिक हैं, तिनिकाभी इस सूत्रमैं| ग्रहण चाहिये । ताका उत्तर- जो, इनिका ग्रहण न चाहिये । अथवा चशब्दकरि कीयाभी | है । फेरि पूछ है, जो, ग्रहण कीया है तो तीनकी संख्या विरोधी जाय है । तहां कहिये, जो, ए | असाधारण जीवके भाव पारिणामिक तीनही हैं । बहुरि अस्तित्व आदि हैं ते जीवकैभी हैं अजीवकैभी हैं तातें साधारण हैं । यातें चशब्दकरि न्यारे ग्रहण कीजिये । इहां तर्क- औपशमिकादिभाव जीवकै नाही बणै हैं । जातें आत्मा अमूर्तिक है । ताते ते भाव कर्मबंधकी अपेक्षारूप हैं। अमूर्तिककै कर्मबंध युक्त नाही। तहां उत्तर- जो, आत्मा अमूर्तिकही है ऐसा एकांत नाही है। इहां अनेकांत है। आत्मा कर्मबंधपर्यायकी अपेक्षा तिस कर्मके बंधनतें कथंचित् मूर्तिक है । शुद्धस्वरूपकी अपेक्षा कथंचित् अमूर्तिक है । तहां फेरि तर्क करै है; जो, ऐसे है तो कर्मबंधका बंधनतें आत्माका एकत्वपणां ठहन्या, तब अभेद ठहन्या, तब भेद कैसे बणैगा? ताकू कहिये; यहु दोष नाही आवै | है । जातें बंधपर्यायकी अपेक्षा एकत्वपणाकू होतेंभी लक्षणभेदतें या आत्माकै अर कर्मकै नानापणा * अनेकपणां है ऐसा निश्चय कीजिये । सोही इहां सिध्दांतकी गाथा है ताका अर्थ- बंधप्रति तो
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