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॥ सर्वार्थासविचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २४० ॥
| करि दोय प्रकार है । जैसें आमिकै उष्णपणां सो तो आत्मभूत है । दंडी पुरुषकै दंड सो अनात्मभूत है । सो इहां आत्माका उपयोग लक्षण आत्मभृत जाननां ॥
इहां कोई कहै, जो, उपयोग तो असाधारणधर्म है, तातें लक्षण नाही, गुणकै अरु गुणीकै अन्यपणां है । जातें लक्ष्यलक्षणके भेद है । ताकू कहिये, सर्वथा भेद होते अनवस्था हो है । तातें कथंचिदाभेदात्मक होते लक्ष्यलक्षणभावकी सिध्दि है । जाके मतमें आत्मा एकांतकरि | नित्य अभेद ज्ञानस्वरूप है, ताके मतमै ज्ञानके परिणाम जे अनेक ज्ञेयाकार होनां ऐसा उपयोग | नांही सिद्ध हो है तहां सर्वव्यवहारका लोप हो है । तातें चैतन्यके परिणामकू उपयोग माने सर्व सिद्धि है । सोही उपयोग लक्षण है आत्मा लक्ष्य है । इहां कोई कहै, आत्मा लक्ष्यही नाही तब लक्षण काहेका ? विनालक्ष्य लक्षण कहना सुसाके सींगवत् मीडककै चोटीवत् वांझके पुत्र वत् आकाशके फूलवत् अभावरूप है ॥ बहुरि जो आत्माभी मानिये, तौ ज्ञानदर्शन तो अनवस्थित है । सो लक्षण बणे नांही । अनवस्थितकूभी लक्षण मानिये तो जब लक्षणका अभाव होय तब लक्ष्यकाभी अभावही आवै है । ताकू कहिये, आत्माका अभाव कहनां युक्त नांही । जातें जो आत्माका अभाव कारणपणाके अभावतें मानिये तो आत्माके नारकादि पर्याय तौ मिथ्यादर्शनादिक
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