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॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २३९ ॥
कभी दो भेद है एक आत्मभूत एक अनात्मभूत । तहां आत्मभूत तो शरीर के संबंधरूप इंद्रि कूं कहे । बहुरि दीपक प्रकाशादिक अनात्मभूत कहे । बहुरि अभ्यंतर कारणभी आत्मभूत अना भूतकर दो भेद कहे । तहां द्रव्यमन वचन कायके योग पुगलरूप हैं तिनिकूं अनात्मभूत का | बहुरि आत्मा के चैतन्यभावतें तन्मय जे प्रदेश तिनिमैं वीर्यांतराय ज्ञानदर्शन आवरण के क्षयोपशम तथा क्षयके अनुसार उज्जलता होय ऐसा भावयोग ताकूं आत्मभूत कह्या । तहां इनका यथासंभव सन्निधान होतें आत्माका चैतन्यस्वभाव है । सो अनुविधान कहिये अन्वय परिणामरूप प्रवर्ते व परिणामकूं उपयोग कहिये । इहां कोई कहै - चैतन्यके परिणाम सुख दुःख मोहरूपभी हैं ते परिणाम भी ग्रहण चाहिये । अगले सूत्र में उपयोग के भेद ज्ञानदर्शनही कहे, सो पूर्वापरविरोध आवै है । ताका समाधान- इहां चैतन्यसामान्यका ग्रहणते सर्वहीका ग्रहण होय है । परंतु अगले सूत्रमें भेद कीये जो दर्शनज्ञान तेही इहां ग्रहण करने । जातें सामान्यका जो विशेष सर्वही अवस्थामैं व्यापक होय सोही लक्षणप्रकरण में लेणा, तातैं विरोध नांही । अब इहां पूछे है, जो, लक्षण कहा? तहां कहिये हैं, जहां बहुत वस्तु मिली होय, तिनिमैं जिस चिन्हकरि वस्तुकी जुदायगी जाणी जाय तिस चिन्हकूं लक्षण कहिये । सो यहु आत्मभूत अनात्मभूत भेद
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