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॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ।। पान २४२ ॥
आकाशका न कहिये। तो ऐसें तौ वृक्षतेंभी जुदा पदार्थ है, तातें वृक्षकाभी न कहिये इत्यादि युक्तिते दृष्टांतभी वणता नाही । तातें कारणके अभावतें आत्माका अभाव मानिये तो यह तो वणे नाही । बहुरि अनवस्थित उपयोगकै लक्षणपणाका अभाव कहै , सो चैतन्यका परिणाम ज्ञेयाकार परिणमैही है । सामान्य उपयोग तो नित्यही रहै है । याहीतें भेदाभेदात्मक वस्तुका स्वरूप निधि सिध्द है । बहुरि कहै, जो, आत्मा प्रत्यक्ष नाही, तातें अभाव मानिये । तहां कहिये, शुद्ध आत्मा तौ सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञानगोचर है । बहुरि कर्मनोकर्मबंधसहित आत्मा अवधि मनःपर्यय ज्ञानकभी गम्य है । बहुरि कहै , इंद्रियप्रत्यक्ष नाही, तातै अप्रत्यक्ष है । तो इंद्रियज्ञान तो परोक्ष है । बहुरि मानसप्रत्यक्षगम्य कहिये है, सो यहभी व्यवहारनयतें सिद्ध हो है । परमार्थतें तो मानसप्रत्यक्ष परोक्षही है । ऐसेंही अन्यवादीनिकरि कल्पित आत्माका अभाव साधनेके हेतु ते बाधासहित जानने जातें आत्मा प्रतीतिसिद्ध है । बहुरि याका लक्षण उपयोग है सो प्रतीतिसिद्ध है। याकी विशेष चरचा श्लोकवार्तिक तत्त्वार्थवार्तिकतें जाननी ॥ ____ इहां कोई पूछै, पूर्वं जीवका स्वतत्त्व भाव कह्या बहुरि लक्षण कह्या, सो स्वतत्त्व अरु लक्षणमें | कहा विशेष है ? ताका समाधान, जो, स्वतत्त्व तो लक्ष्य आत्माही है । बहुरि लक्षण है सो लक्षणही
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