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॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २४३ ॥
है । सो लक्षण है सो लक्ष्य नाही है । जाते लक्ष्यलक्षणविर्षे कथंचित् भेदाभेदकी सिध्दि पूर्व कही है। तहां क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भावविर्षे ज्ञानदर्शन भेदरूप कहै हैं । तिनि दोऊनिमें सामान्यव्यापी उपयोगकू इहां लक्षण कह्या है । चैतन्यशक्तिकी लब्धि है सो तो नित्य है । ताकी व्यक्ति पंचभावरूप अनेक हैं । तिनिमें उपयोगभी है सो छद्मस्थकै अनित्य है । ताकी स्थिति एक ज्ञेयके | वि रहना उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्तमात्र कह्या है । बहुरि अनुभवगोचर है, तातें प्रसिद्ध है । लक्षण प्रसिद्धहीकू कहिये है । आत्मा लक्ष्य है सो शक्तिव्यक्तिमय है अरु लक्षण व्यक्तिही है । तातें आत्माकी सिद्धि वादिप्रतिवादिप्रसिद्ध उपयोगहीतें होय है । तातें उपयोगकू लक्षण कह्या है ॥ आगें, कह्या जो उपयोग, ताके भेद दिखावनके अर्थ सूत्र कहै हैं
॥स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥९॥ याका अर्थ- पूर्वसूत्रमें उपयोग कह्या, सो ज्ञानदर्शन भेदकरि दोय प्रकार है । तहां आठ भेदरूप ज्ञान है । च्यारि भेदरूप दर्शन है ॥ उपयोग दोय प्रकार है ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोग ऐसें । | तहां ज्ञानोपयोग आठ भेदरूप है मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंगज्ञान ऐसें आठ भेद । बहुरि दर्शनोपयोग च्यारि प्रकार है चक्षुर्दर्शन ,
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