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॥ सर्वार्थासद्धिवचनिका पंडित जयचंद कृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २२५ ॥ अपेक्षा है । तातें वाक्यवि चकार शब्दतें पहले कहे जो औपशमिक क्षायिक ए दोय तेही मिश्रमैं ग्रहण करने अन्य न लेणे । बहुरि कहै, जो, क्षायोपशमिक ऐसा शब्द क्यों न कह्या मिश्र काहेकू कह्या ? तहां कहिये, क्षायोपशमिक कहनेमैं गौरख होय है-अक्षर सूत्रमैं वधि जाय । ताते वाक्यकार मिश्र ग्रहण कीया है। बहुरि मिश्रका ग्रहण बचि कीया, ताका यह प्रयोजन है, जो, पहले पिछले दोनूंकी अपेक्षा लेणी है । औपशमिक क्षायिक तौ भव्यहीकै होय है । बहुरि मिश्र है सो भव्यकभी होय अभव्यकभी होय । बहुरि औदयिक पारिणामिक ए दोऊभी भव्य तथा अभव्य दोऊहीकै होय । तातें मिश्रका बीचि ग्रहण है ॥
बहुरि कोई पूछे है , भावशब्दकी अपेक्षा स्वतत्त्व शब्दकै ताके लिंग तथा संख्याका प्रसंग आवै है । जातें भावशब्द पुरुषलिंगी है । तातें स्वतत्त्वकभी पुरुषलिंग चाहिये । तथा भावनिकी संख्या बहुत है, तातें स्वतत्त्वकै बहुवचन चाहिये । ताकू कहिये स्वतत्त्वशब्द है सो उपात्तलिंग संख्यारूप है याका लिंग पलटै नाही । तथा तत्त्वशब्द भाववाची है । तातें भावके एकही वचन होय है । जाते तस्य भावस्तत्त्वं ऐसा है, तातें संख्याभी पलटे नांही तातें दोष नाही । बहुरि इहां ऐसा विशेष जाननां, जो, जीवके पांच भाव कहे तातें चैतन्यमात्रही नाही है । सांख्यमती पुरुषका
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