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॥सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २२८ ॥ निमित्त होय है । तहां प्रथम तौ कर्मसहित आत्मा भव्यजीवकै संसार अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन नामा कालमात्र अवशेष रहै, तब प्रथमोपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करनेयोग्य होय है । जो संसार अधिका बाकी होय तौ सम्यक्त्वग्रहण न होय। ऐसें एक तौ काललब्धि यह है। बहरि दुसरी काललब्धि यह है, जो, कर्मकी स्थिति उत्कृष्ट जाकै बंधती न होय तथा सत्ताका कर्मकी होग तथा जघन्यस्थितिबंधकी तथा सत्ताकी होय तो तिस अवसरमैं सम्यक्त्वका लाभ न होय । तौ कहां होय ? जब अंतःकोटाकोटी कहिये एक कोडाकोडी सागरमें नीचे स्थिति लीये कर्मबंध भावकू प्राप्त होय, तथा विशुध्दपरिणामके वशतें सत्ताका कर्मबंधकी स्थिति संख्यात हजार सागर घाटि रह जाय, तब प्रथमसमम्यत्वग्रहणयोग्य होय ॥ बहुरि तीसरी काललब्धि भवकी अपेक्षा है । जो भव्यजीव पंचेंद्रिय होय संज्ञी होय पर्याप्त अवस्थासहित होय सर्वते विशुध्दपारणाम होय सो प्रथमोपशमसम्यक्त्वकू उपजावै है । बहुरि आदिशब्दकरि जातिस्मरण आदिक लेणे । बहुरि समस्त मोहनीयकर्मके उपशमतें उपशमचारित्र होय है। तहां सूत्रमें सम्यक्त्वका आदि वचन है सो चारित्र सम्यक्त्वपूर्वकही होय है । आत्मा पहली सम्यक्त्व अवस्थारूप होय है । अब आत्माकै चारित्र अवस्था प्रकट हो है ॥
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