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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता॥तीय अध्याय ॥ पान २२४ ॥
सम्यग्दर्शनविर्षे औपशमिक पहलै होय है। अनादिमिथ्यादृष्टीकै प्रथमही औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्ति होय है । तातें सूत्रविर्षे याकू आदिवि कह्या है । ताकै पीछे क्षायिक ग्रहण कीया है । जातें यहु निर्मलताईमें याकी स्पर्द्धा बरोबरी करै है, प्रतियोगी है । तथा संसारी जीवनिकी अपेक्षा द्रव्यनिकी गणती कीजिये तब औपशमिकवाले जीवनितें असंख्यातगुणै क्षायिकवाले जीव हैं। काहेत ? जातें औपशमिककाल अंतर्मुहूर्तमात्र है । तामें भेले होय तब अल्पही होय । यातें क्षायिकका काल संसारीकी अपेक्षा तेतीस सागर किछ अधिक है । सो वार्ते असंख्यातगुणा भया । तातें तहां जीवनिकी संख्याभी असंख्यातगुणी भई । ताकै पीछे मिश्र कहिये क्षायोपशमिकका ग्रहण है । जातें इहां दोऊ स्वरूप है । तथा जीव इहां असंख्यातगुणे होय हैं। याका काल छ्याछटी सागरका है । वहरि ताकै पीछे औदयिक पारिणामिकका ग्रहण अंतमैं कीया। जातें इहांभी जीवनिकी संख्या तिनितें अनंतगुणी है । इहां कोई कहै है, जो, या सूत्रमैं भावनिकै जुदी जुदी विभक्तिकरि वाक्य कीया सो कौन कारण ? द्वंद्वसमासतें निर्देश करना था। कैसे ? “औपशामिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणाभिकाः” ऐसै । इस भांति कीये दोय चकार न आवते तब सूत्र में अक्षर थोरे | हो।। ताकू कहिये, ऐसी आशंका न करणी । जाते इहां मिश्र ऐसा कह्या है सो दोय अन्य गुणकी
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