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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २२० ।।
प्रतिवादीविना तौ वाद प्रवर्तेही नाही । सभाके लोकविना साख कौन भरै । सभापतिविना हारे जीते निग्रह अनुग्रह कौन करै । ताते चान्योंही चाहिये ॥
इहां नैयायिक कहै हैं- जो, वाद है सो तत्त्वनिर्णयका कारण है । यातें तत्त्वनिर्णय दृढ़ होय है । जगमें सत्यार्थतत्त्वकी प्रभावना होय तब लोकमें प्रतिष्ठा होय तातें यहही वीतरागकथा है । ताकू कहिये, जो, वीतरागकथाविर्षे तौ सभाका तथा सभापतिका नियम नाही । बहुरि विजिगीषुकथाविर्षे नियमही है । बहुरि कही जो वादविर्षे सर्वलोककै तत्त्वकी दृढता होय है प्रभावना होय है, सो यह तो सत्य है । परंतु जहां आपकी हार होय तहां स्वमतका विध्वंसभी होय है । सो वाद तौ हारिजीतिहीका कारण है, तातें वीतरागीनिकै यह संभवै नाही । बहुरि जहां अपनी ऐसी सामर्थ्य
होय, जो, मै वाद मैं हारूंगा नाही जीतंहीगा, तौ याकं सामग्री बहुत चाहिये । प्रथम तौ यथार्थहेतु || वाद अहेतुवादकरि आपकै तत्त्वका निर्णय चाहिये। दसरा तपश्चरणादिकरि अपनी प्रतिष्ठा
जगतमैं भई होय ऐसा चाहिये । बहुरि कछू देवता इष्टका अतिशय चमत्कारकी आपकै सिद्धि भई चाहिये । बहुरि राजा आदिकी पक्ष अपनी चाहिये । पक्षविनां आप सांचाभी होय तो निष्पक्षीको | पेला पक्ष प्रबलवाला झूठा करि डारै इत्यादि सामग्री होय, अवश्य जीतनेका आपका निश्चय होय
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