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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय । पान २१९ ॥
सत् आदिक अनुयोगनिकारि तत्त्वार्थनिका अधिगम होय है । सो तत्त्वार्थ, नाम स्थापना द्रव्य भाव इनि च्यारि निक्षेपनिकरि स्थापि तिनिका अधिगम करनां । यहू अधिगमज सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति कारण है | निसर्गज सम्यग्दर्शन तौ मति अवधि ज्ञानकरि होय है । बहुरि अधिगमज है सो गुरूपदेशके आधीन है । तातें श्रुतज्ञानरूप जो प्रमाणनयादिकका ज्ञान सो गुरूके मुख श्रवण कीयेतैं होय है । सो शास्त्रका श्रवण पठन पाठन निरंतर करनां योग्य है । यहही भव्यजीवनिकूं स्वर्गमोक्षका साधन है ॥
अब प्रमाणनयनिकरि तत्त्वार्थनिका अधिगम कहिये ज्ञान हो है ताका स्वरूप कहिये हैं । तां तत्त्वार्थाधिगम दोय प्रकार है, स्वार्थ परार्थ ऐसें । तहां स्वार्थ तौ ज्ञानस्वरूप है । बहुरि परार्थ वचनात्मक है । सोभी दोय प्रकार है । एक तौ वीतरागीकै होय । ताकूं वीतरागकथा कहिये । दूसरा वादिप्रतिवादी जिनिकै हार जीतकी इच्छा होय तिनिकै होय । ताकूं विजिगीषुकथा कहिये । तहां वीतरागकै तौ गुरुशिष्य होय तथा विशेषज्ञानी दोनूंही होय तिनिकै होय । तहां वीतरागीनिकी चरचाकी हद तौ तत्त्वनिर्णय हो चुकै तबताई है । बहुरि वादिप्रतिवादीनिकै हारजीत होय चुकै तबताई है। तहां इसके च्यारि अंग हैं। वादी प्रतिवादी सभाके लोक सभापति ऐसे । वादि
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