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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २१७ ॥
असद्भूत उपचार कहै हैं । ते कथंचित् असत्यभी मानने । जातें ऐसा कह्या है, जो, प्रयोजन तथा निमित्तके वशतें प्रवर्ते अन्यकू अन्य कहनां तहां उपचार है सो परस्पर द्रव्यनिकै निमित्तनै मित्तिक भाव है । सो तो सत्यार्थ हैही। तातें संसार मोक्ष आदि तत्त्वनिकी प्रवृत्ति है । जो निमित्त नैमित्तिकभाव झूठा होय तौ संसार मोक्ष आकाशके फूलज्यों ठहरै । बहुरि तैसेंही जहां पुरुषका प्रयोजन है ताकै अर्थि जो प्रवृत्ति है सोभी कथंचित् सत्यार्थ है । जो प्रयोजन तथा प्रयोजनका विषय पदार्थ सर्वथा असत्यार्थ होय तो आकाशके फूलकीज्यौं झूठा ठहरै । तथा एकेंद्रियादिक जीवकू व्यवहारकरि जीव कह्या है । सो व्यवहार सर्वथा झुठाही होय तो जीवहिंसादिकका कहन झूठा ठहरै । परमार्थतें जीव तौ नित्य है अमर है । एकेंद्रियादिक जीव कहनां झूठ है झूटाके घातविर्षे काहेकी हिंसा ? तथा याका विस्तार कहांताई कहिऐ ? जे व्यवहार; सर्वथा असत्यार्थ कहै हैं ते तो सर्व व्यवहारके लोप करनेवाले तीव्रमिथ्यात्वके उदयतें गाढे मिथ्यादृष्टि हैं-जिनमततें प्रतिकूल हैं , तिनिकी संगतिही स्वपरकी घातक है ऐसा जाननां ।।
बहुरि नयचक्रमें नयनिके भेद ऐसे कहे हैं । द्रव्यार्थिकके भेद १० । तहां कर्मोपाधिनिरपेक्ष, जैसें, संसारी जीव सिद्धसमान हैं । उत्पाद व्यय गौणकरि केवल ध्रौव्यरूप सत्ताकू ग्रहै, जैसे
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