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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २१५ ॥
पर्यायके विर्षे द्रव्यका उपचार भया । बहुरि देहळू सुंदर देखि ताकू उत्तमरूप कहनां तहां पर्यायविर्षे गुणका उपचार भया । इत्यादिक उपचार जानने । बहुरि उपचारका उपचारपरि तीन भेद लगावणे । तहां पुत्रादिक मेरे हैं, मै इनिका हौं ऐसे कहनां सो समानजातीय उपचारका उपचार है । बहुरि वस्त्र आभारणादिक मेरे हैं ऐसे कहनां सो विजातीय उपचारका उपचार है । बहुरि देश गढ़ राज्य पुर मेरे हैं ऐसें कहना मिश्रउपचारका उपचार है । ऐसें व्यवहारनय अनेकरूप प्रवर्ते है ॥
बहुरि श्लोकवार्तिकमैं ऐसें कह्या है- जो एवंभूतनय तो निश्चय है । जातें जिसकी जो संज्ञा होय तिसही क्रियारूप परिणमता पदार्थ होय सो याका विषय है । जैसे चैतन्य अपनां चैतन्यभावरूप परिणमै ताकू चैतन्यही कहै । क्रोधीकू क्रोधीही कहै इत्यादि । बहुरि व्यवहार अशुद्धद्रव्यार्थिककू कया है। जातें दोय भाव तथा द्रव्य मिलेविना व्यवहार चलै नांही। दोय मिलै तव अशुद्धता भई । सो यह निर्देशादिक अधिकारमें लिखीही है । इहां प्रश्न, जो, अध्यात्मग्रन्थनिमें कह्या है, जो, निश्चयनय तो सत्यार्थ है व्यवहार असत्यार्थ है-त्यजनेयोग्य है, सो यह उपदेश कैसे है? ताका उत्तर- जो, उपदेश दोय प्रकार प्रवत है। तहां एक तो आगम । तामें तो निश्चय द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोऊही नय परमार्थरूप सत्यार्थ कहे हैं । अर प्रयोजन अर निमित्तके वश” अन्यद्रव्यगुणप
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