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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २२१ ॥ CalorganpaaNEPARASPROHOPRARPRAVACHAR तब वाद जीति मतकी प्रभावना करै तो उचितही है । विनासामग्री वाद करै अरु हारै तौ स्वमतका विध्वंसही होय । ताते यह निश्चय जानूं, जो , वाद एकांततें तौ तत्त्वनिर्णयकू कारण नाही, हारजीतिही मुख्यता है । बहुरि वीतरागकथा है सोही तत्त्वनिर्णयकू कारण है ॥ ऐसें इस प्रथम अध्यायविर्षे ज्ञानका बहुरि दर्शनका तौ स्वरूप वर्णन कीया । बहुरि नयनिका लक्षण कह्या । बहुरि ज्ञानका प्रमाणपणां कह्या ॥ दोहा---- दर्शनबोध यथार्थता । नयलक्षण बणवाय ॥ ज्ञान पंचकै मानता । कही आदि अध्याय ॥ १॥ सवईया तेईसा-जे पढि हैं अधिकार पहै नर ते चढि हैं निजरूप रमंता । जे कढि हैं मुख यामय वाक्य सु चढि हैं सब ऊपरि संता ॥ जे करि हैं निति पूजन भव्य सुपुण्य लहै परलोक गमंता । जे परि हैं थुति गाय सुपाय निबोध फुरै तिनिकू जु अनंता ॥१॥ ऐसे तत्वास्थका है अधिगम जातें ऐसा जो मोक्षशास्त्र ताविर्षे प्रथम अध्याय संपूर्ण भया । For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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