________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय | पान ७८ ॥
देवगतिविर्षे देवनिका च्यारि गुणस्थानविर्षे लोककै असंख्यातवै भाग है । इंद्रियके अनुवादकरि एकेंद्रियनिका क्षेत्र सर्वलोक है । विकलत्रयका लोकका असंख्यातवा भाग है । पंचेंद्रियनिका मनुष्यवत् है । इहां कोई पूछे, मनुष्य तौ अढाई द्वीपमेंही उपजे हैं । पंचेंद्रिय बमनाडीमें उपजै हैं । मनुष्यवत् कैसै कह्या? ताका समाधान- जो, पंचेंद्रिय केतेक इनिके उपजनेके ठिकाणेही उपजै हैं । सर्वत्र त्रसनाडीमैं नांही उपजै हैं । तातें लोकका असंख्यातवा भागही है ।
कायके अनुवादकरि पृथिवीकायिक आदि वनस्पतिपयतका सर्वलोक क्षेत्र है । त्रसकायिकका पंचेंद्रियवत् क्षेत्र है ॥
योगका अनुवादकरि वचन मनोयोगवाले मिथ्यादृष्टि आदि सयोगकेवलीपर्यंतनिका लोककै असंख्यातवै भाग है । काययोगीनिका मिथ्यादृष्टि आदि सयोगकेवलीपर्यंतनिका अर अयोगकेवलीनिका गुणस्थानवत् क्षेत्र है । वेदके अनुवादकरि स्त्रीपुरुषवेदीनिका मिथ्यादृष्टि आदि अनिवृत्तिवादरपर्यंतनिका लोकके असंख्यातवा भाग है । नपुंसकवेदनिका मिथ्यादृष्टि आदि अनिवृत्तिवादरपर्यंतनिका अरु वेदरहितनिका गुणस्थानवत् क्षेत्र है ||
कपायके अनुवादकरि क्रोध मान माया कपायवालेनिका अर लोभ कषायवालेनिका
For Private and Personal Use Only