________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १४४ ॥
eritseriesse-
FARPPRNAKFARPAGXFASPARREARRANGACASPONGAROGRAPARNAGARIA
है। स्वभावोपलब्धि जैसें; वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप है, जातें सत्त्वस्वरूप है । सत्त्वका स्वभाव ऐसाही है । ऐसें ये तीन भेद भये । इत्यादि साधनके अनेक भेद हैं, सो श्लोकवार्तिकतें जानने ॥ बहुरि अन्यवादी अर्थापत्त्यादिक प्रमाण न्यारे मानै हैं ते सर्व इस मतिज्ञानमें अंतर्भूत होय हैं, ऐसें जाननां॥ आगें या मतिज्ञानका स्वरूपका लाभविर्षे निमित्त कहां है? ऐसे प्रश्न होतें सूत्र कहे हैं
॥ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४॥ याका अर्थ- तत् कहिये सो मतिज्ञान इंद्रिय अर अनिंद्रिय है निमित्त कहिये कारण जाळू ऐसा है ।। प्रथम तौ इंद्रियशब्दका अर्थ कहै हैं । इन्दति कहिये परम ऐश्वर्यरूप वर्ते सो इंद्र है। तहां अर्थतें आत्माका नाम इंद्र कह्या, सो ऐसा ज्ञानस्वभाव जो आत्मा, ताकै ज्ञानावरणकर्मका ऐसा क्षयोपशम होय, जो आप आपतेही पदार्थनिकू जाननेषं असमर्थ होय । ताकै पदार्थ जाननेका कारण चिन्ह होय ताकू इंद्रिय कहिये । जाते व्याकरण ऐसा है 'तस्य लिंगम्' इस अर्थमें इंद्रशब्दकै प्रत्यय आया है । अथवा ऐसाभी अर्थ जो गूढ अर्थकू जनावै ताकू लिंग कहिये । तहां आत्मा गूढ है
अदृष्ट है । ताके अस्तित्वकू जनावनेविर्षे चिन्ह है तातें आत्माका लिंग इंद्रिय है। जैसे लोकमें | अमिका धूम लिंग है तैसें जाननां । ऐसे यह स्पर्शादि इंद्रिय हैं ते करण हैं । सो कर्ता जो आत्मा
ertsexisixerestiorreritonixvextliverits?
For Private and Personal Use Only