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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १४५ ॥
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तिसविना न होय ऐसें ज्ञाता जो आत्मा ताका अस्तित्व जनावै है । अथवा इंद्र ऐसा नाम कर्मका कहिये । ताकरि ये रचे हैं निपजाये हैं । तातेंभी इंद्रिय ऐसा कहिये । ते स्पर्शनादि आगें कहसी ॥
बहुरि अनिद्रिय नाम मनका है । याकू अंतःकरणभी कहिये । इहां कोई पूछ है- इंद्र जो आत्मा ताहीका लिंग जो मन ताका नाम इंद्रियका प्रतिषेधकरि अनिद्रिय ऐसा नाम कैसे दीया ? ताका उत्तर-जो, इहां इंद्रियका प्रतिषेधकर नाही है । 'न इन्द्रियं अनिन्द्रियं ' ऐसे कहनेमें ईषत् अर्थ लेना । किंचित् इंद्रियकू अनिद्रिय कह्या है । जैसे काहू कन्याळू अनुदरा नाम कह्या, तहां जाकै उदर न होय ताकू अनुदरा कहिये ऐसा अर्थ न लेना । जाका ईषत् किंचित् पतला क्षीण उदर होय ताकू अनुदरा कहिये ऐसा अर्थ लेना। बहुरि कोई पूछ है- इहां ईषत् अर्थ कैसे है ? ताका उत्तर- ए इंद्रिय हैं ते प्रतिनियत कहिये नियमरूप जुदाजुदा जिनका देश अरु विषय है ऐसें हैं। बहुरि कालांतरस्थायी हैं। जा कालमें विषयतें उपयुक्त न होय ता कालमें भी अवस्थित हैं । बहुरि मन है सो यद्यपि इंद्र कहिये आत्मा ताका लिंग है तथापि नियमकरि एकही देशवि तथा एकही विषयका ग्राहक नाही । अन्यकाल में जाका अवस्थान नाही अनवस्थित है | चंचल है । याहीते याकू अंतःकरण कहिये अभ्यंतर इंद्रिय कह्या है। जातें गुणदोषका विचार
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