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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १६९ ॥
GANGA
मतिज्ञान तिस पूर्वक होय है । ऐसें मतिपूर्वक इरुत कहने में विरोध नाही है ।
बहुरि अन्यवादी उपमानप्रमाण जुदा कहै हैं । सोभी इस श्रुतप्रमाणमैंही अंतर्भूत होय है । सोही कहिये हैं । प्रसिद्ध समानधर्मपणांतें जो साध्यवस्तुको साधिये, ताकू उपमान कहिये । जैसे गऊसारिखा यह गंवय है । तथा वैधयंतॆभी होय है, जैसे जो महिष है सो गऊ नाही है। ऐसे साधय॑वैधर्म्यकरि जो संज्ञासंज्ञिसंबंधकी प्राप्ति सो उपमानका अर्थ है । सो ऐसें याकू शदप्रमाणते न्यारा कहै है। तिनिकै दोय आदि संख्याका ज्ञानभी न्यारा प्रमाण ठहरैगा । तथा उपरिले नीचलेका ज्ञान तौ सौपानकेवि, तथा पर्वतादिविर्षे थिरताका ज्ञान, अपने वंशादिविर्षे महानपणैका ज्ञान , चंद्रमासूर्यादिविर्षे दूरवर्तीपणाका ज्ञान , सरसूं आदिविर्षे छोटापणाका ज्ञान , रुई आदिविर्षे हलकाप| णाका ज्ञान , अपना घर आदिविर्षे निकटवर्तिपणांका ज्ञान , बकूटाचोकूटा आदिविणे आकारका ज्ञान , | कोईविर्षे वक्रपणादिका ज्ञान, ए सर्व न्यारे प्रमाण ठहरैगे। तब आप मानी जो प्रमाणकी संख्या ताका विघटन होगा। तातें जो संज्ञासंज्ञिसंबंधते पदार्थका ज्ञान होय है सो सर्व आप्तके उपदेशपूर्वक है । तातें आगमप्रमाणमें अंतर्भूत होय है । ऐसेंही अन्यभी उदाहरण हैं ॥
जैसे सिंहासनपरि बैठा होय सो राजा होय । सुवर्णके सिंहासनपरि बैठी पट्टराणी होय । इस |
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