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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय || पान १८८ ॥
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॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ ३२॥ याका अर्थ-- मिथ्यादृष्टिकै विपर्यय होय है सो सत्का तथा असत्का विशेष न जाननेतें अपनी इच्छातें जैसे तैसे ग्रहण करनेतें होय है। जैसे मदिरादिकते उन्मत्त भया पुरुष अपनी इच्छातें जैसे तैसें वस्तुकौं ग्रहण करे तैसें मिथ्यादृष्टिभी छती अणछती भली बुरीका विशेष जान्यां विना अपनी इच्छातें ग्रहण करै है । इहां सत् ऐसा तो विद्यामानवस्तुकू कहिये असत् अविद्यमानकू कहिये । इनि दोऊनिका अविशेषेण कहिये विशेष न करे, कदा विद्यमान... अविद्यमान कहै, | कदा विद्यमानकू विद्यमान भी कहै, कदा अविद्यमानकू विद्यमान कहै, कदा अविद्यमानकू अविद्यमानभी कहै, ऐसें अपनी इच्छा” जैसे तैसें ग्रहणकरि कहै। तहां विपर्यय कहिये जैसें रूपादिक वस्तु छती होय तौभी कहै नाही है। कदा अणछतीकूभी कहै है छती है । कदा छती• छतीभी कहै । कदा अणछतीकू अणछतीभी कहै । ऐसें मिथ्यादर्शनके उदयतें अन्यथा निश्चय करै है।
जैसें पित्तज्वरकरि आकुलित चित्तभ्रमवाला कदाकाल तौ माताकू भार्या कहै, कदा भार्याकू माता | कहै, कदा माताकू माताभी कहै, कदा भार्याईं भार्याभी कहै ऐसें अपनी इच्छात मानै । तातें | जैसाकू तैसाभी कहै है, तो ताके सम्यग्ज्ञान नांही है ॥
రండiseriofered్య తలను
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