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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १९७ ॥
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तथा कोई पुरुष ईंधन जल आदि सामग्री भेली करै था, ताकू कोई पूछी, तूं कहा करै है? तब | वह कहै, मै भात पचाऊं हूं, तब तहां भात अवस्था तिसकै निकट वर्तमान नाही, भात पचेगा तब होयगा । तथापि तिस भातकै अर्थि व्यापार करतें आगामी भात पचेगा ताका संकल्प याके ज्ञानमै विद्यमान अनुभवगोचर है । सो यहु संकल्प नैगमनयका विषय है । ऐसीही विना रची दूर क्षेत्र कालमें वर्तती जो वस्तु ताका संकल्पकू यहु नैगमनय अपना विषय करै है ॥ इहां कोई पूछआगामी होणी विर्षे वर्तमान संज्ञा करी । तातें यहु तौ उपचारमात्र भया ॥ ताकू कहिये- बाह्य | वस्तुकी याकै मुख्यता नाही, अपने ज्ञानका संवेदनरूप संकल्प विद्यमान है । सो याका विषय है । तातें उपचारमात्र नांही । बहुरि याका विषय एकही धर्म नाही, अनेक धर्मनिका संकल्प है, तातॆभी याकू नैगम कह्या है। दोय धर्म तथा दोय धर्मी, तथा एक धर्मी एक धर्म ऐसें याके अनेकप्रकार संकल्पते अनेकभेद हैं। कोई कहै, ऐसें तो दोऊनिके ग्रहण करने” यह प्रमाणही भया। ताकू कहिये, प्रमाण तौ दोऊनिकू प्रधानकरि जानै है । यहु नैगम दोऊमैं एकप्रधान करै है, एककू गौण करै है, ऐसा विशेष जाननां ॥
__या नैगमके भेद तीन हैं । द्रव्यनैगम, पर्यायनैगम, द्रव्यपर्यायनैगम । तहां द्रव्यनैगमके दोय
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