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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २०१ ॥
ఆనందండకం
व्यवहरण कहिये भेदरूप करणां सो व्यवहारनय है। कोई पूछे विधि कहां? ताईं कहिये जो संग्रहकरि ग्रह्या पदार्थ है ताहीकू पहलीले अरु भेद करै सो विधि कहिये, जैसे संग्रहकरि सत् ग्रहण कीया सो जो विशेषकी अपेक्षा रहित होय तौ तासूं व्यवहार प्रवर्ते नांही। तातें व्यवहारनयका आश्रय करिये तब ऐसें कहिये, जो सत् कह्या सो द्रव्यरूप है, तथा गुणरूप है ऐसें सतविष भेदकरै तब व्यवहार प्रवर्ते । तथा द्रव्य ऐसा संग्रह ग्रहण कीया सोभी विशेषनिकी अपेक्षा रहित होय तो व्यवहार प्रवर्ते नांही । तातें व्यवहारका आश्रय लीजिये तब द्रव्य है सो जीवद्रव्य है तथा अजीवद्रव्य है; ऐसे भेदकरि व्यवहार प्रवर्ते । ऐसही जीवद्रव्यका संग्रह होय तामें देव नारकादि भेद होय अजीवका संग्रह करै तब घयदिकका भेद होय । ऐसे यहु नय तहांताई चल्या जाय जहां फेरि | भेद न होय । सो जहां ऋजुसूत्रका विषय है ताकै पहलैताई संग्रह व्यवहार दोऊ नय चले जाय है।
आगें ऋजुसूत्र नयका लक्षण कहै हैं। ऋजु कहिये सरल सुधा सूत्रयति कहिये करै है | ताकू ऋजुसूत्र कहिये । तहां पूर्व कहिये पहलै, अतीत गये, तथा अपर कहिये पीछे होयगा ऐसे तीन कालके गोचर जे भाव तिनिकू उल्लंपिकरि वर्तमानकाल पर्यायमालका ग्रहण करनेवाला यहु | ऋजुसूत्रनय है । जातें अतीत तो विनशि गये । बहुरि अनागत उपजेही नाही । तिनिकरि तौ
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