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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय || पान २०० ॥
कहिये । इहां उदाहरण | जैसें सत् ऐसा कहतें सत् ऐसा वचनकरि तथा ज्ञानकरि अन्वयरूप जो चिन्ह ताकरि अनुमानरूप कीया जो सत्ता ताके आधारभूत जे सर्व वस्तु तिनिका अविशेषकरि संग्रह करे जो सर्वही सत्तारूप है ऐसे संग्रहनय होय है । तथा द्रव्य ऐसा कहते जो गुणपर्यायनिकरि सहित जीव अजीवादिक भेद तथा तिनिके भेद तिनिका सर्वनिकी संग्रह होय है । तथा घट ऐसा कहतै घटका नाम तथा ज्ञानके अन्वयरूप चिन्हकरि अनुमानरूप कीये जे समस्त घट तिनिका संग्रह हो है । ऐसें अन्यभी एकजाति के वस्तुनिकं भेला एककरि कहै तहां संग्रह जाननां । तहां सत् कहने सर्ववस्तूका संग्रह भया । सो यहु तौ शुद्धद्रव्य कहिये । ताका सर्वथा एकांत सो संग्रहाभास कुनय है । सो सांख्य तौ प्रधानकूं ऐसा कहै हैं । बहुरि व्याकरणवाले शब्दाद्वैतकूं कहे हैं । वेदांती पुरुषाद्वैत कहै हैं । बौद्धमती संवेदनाद्वैत कहैं हैं । सो ये सब नय एकांत है । बहुरि या नयकूं परसंग्रह कहिये । बहुरि द्रव्यमैं सर्वद्रव्यनिका संग्रह करे । पर्याय मैं सर्व पर्यायनिका संग्रह करे सो अपरसंग्रह है । ऐसैही जीव में सर्वजीवनिका संग्रह करे । पुद्गल में सर्वपुद्गलनिका संग्रह करै । घट सर्व घटनका संग्रह करै । इत्यादि जाननां ॥
IT व्यवहारन का लक्षण कहैं हैं । संग्रह नयकरि ग्रहण कीये जे वस्तु तिनिका विधिपूर्वक
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