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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदजाता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २०६ ॥
रूढनय नाना अर्थविर्षे प्राप्त होय है, तातें समभिरूढ है । जैसे इंदनात् कहिये परमैश्वर्यरूप क्रिया करै तब इंद्र है । शकनात् कहिये समर्थरूप वर्ते तब शक्र कहिये । पूर्दारणात् कहिये पुरके विदारणक्रियारूप वतै तब पुरंदर है । ऐसें यहु समभिरूढनय एकही अर्थकू ग्रहणकरि प्रवते है । अथवा जो जहां प्राप्त है तहांही प्राप्त होय करि वर्ते है, तातें समभिरूढ है । जैसे काहूकू कोई पूछै तूं कहां तिष्ठै है ? वह कहै, में मेरे आत्मावि तिष्ठू हूं ऐसेंभी समभिरूढ है। जातें अन्यका अन्यविर्षे प्रवर्तना न हो है । जो अन्यका अन्यविर्षे प्रवृत्ति होय, तौ ज्ञानादिककी तथा रूप आदिककी आकाशविर्षेभी वृत्ति होय । सो है नांही ॥
आगें एवंभूतनयका लक्षण कहै हैं । जिस स्वरूपकार जो वस्तु होय तिसही स्वरूपकरि ताकू कहै, निश्चय करावै सो एवंभूत है । जो वस्तु जिस नामकरि कहिये तिसही अर्थकी क्रियारूप परिणमता होय तिसही काल वा वस्तू· तिस नामकरि कहै अन्यकाल अन्यपरिणतिरूप परिणमताकू तिस नामकरि न कहै । जैसें इंद्र ऐसा नाम है, सो परमैश्वर्यरूप क्रिया करता होय तबही इंद्र कहै, अभिषेक करतें तथा पूजा करतें ताकू इंद्र न कहै । तथा जिस काल गमन करै तिस | कालही गऊ कहै बैठीकू गऊ न कहै सूतीकू गऊ न कहै । अथवा जिस स्वरूपकरि जिसका ज्ञान
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