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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान २१० ॥ | अगिले नयमें नांही तातें विरुद्ध है । अगिलेका विषय पहलेमें गर्भित है तातें ताके अनुकूलपणां है । ऐसें ये नयभेद काहेरौं होय है? जातें द्रव्य अनंत शक्तिकू लीये है तातें एक एक शक्ति प्रति भेदरूप भये बहुत भेद होय हैं । ऐसें ए नय मुख्यगौणपणां करि परस्परसापेक्षरूप भये संते सम्यग्दर्शनके कारण होय हैं । जैसे सूतके तार आदि हैं ते पुरुषके अर्थक्रियाके साधनकी सामर्थ्यतें यथोपायं कहिये जैसे वस्त्रादिक बणि जाय तैसा उपायकरि थापे हुये वस्त्रादिक नाम पावै है । बहुरि वह तार जो परस्पर सापेक्षारहित न्यारे न्यारे होय तौ वस्त्रादिक नाम न पावै तैसेंही ये नय जानने ॥
इहां कोई कहै यह तारनिका उदाहरणतो विषम उपन्यास है मिल्या नांही । जातें तार आदिकतो अपेक्षारहित न्यारेन्यारेभी अर्थमात्रा कहिये प्रयोजनकू सिद्ध करै है। तथा अर्थक्रिया करै है । जैसे कोई तार तो न्यारा शीकनिक बांधनेकू शस्रके घाव सीवनेकू समर्थ होय है। कोई तार वेलिखीय आदिका ऐसा होय जो भारा आदि बांधनेषं समर्थ है। बहुरि ये नय जब निरपेक्ष होय तब किछुभी सम्यग्दर्शनकी मात्राकू नाही उपजावै है। तहां आचार्य कहै हैं, यह दोष इहां नांही है ॥ जातें हमनें कह्या ताका ज्ञान तुमारै हुवा | नांही । कहे अर्थकू विना समझ्या यह उराहना दीया । हमनें तो ऐसें कह्या है निरपेक्ष तार आदि
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