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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदजाकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २११ ॥ कहे ते वस्रादिकार्य नांही है। बहुरि तुमनें कह्या सो तौ पटादिकार्य नांही है केवल तार आदिहीका न्याराही कार्य है । सोभी कार्य जो तार आदि अपने अवयवसहित न होय तो तिनि” न होय । तातें हमारी पक्षसिद्धि है । सापेक्षही कार्य उपजावै है । बहुरि कहै तार आदिवि वस्त्रादिकार्य शक्तिरूप है। तो नयनिविभी निरपेक्षनिवि ज्ञानरूप तथा शब्दरूपनिविर्षे कारणके वसतें सम्यग्दर्शनका कारणपणाका विशेषरूप परिणवनके सद्भावतें शक्तिरूप सम्यग्दर्शनका कारणका आस्तित्व है । तातें हमारा दृष्टांत विषम नांही है, समही है, मिलता है ।
आगें इनि नियमकै परस्पर मुख्यगौणपणांकी सापेक्षाकरि विधिनिषेधते सप्तभंग उपजै हैं सो कहिये हैं । तहां नैगमकै तौ संग्रहादि छह नयनिकरि न्यारे न्यारे छह सप्तभंग होय है । बहुरि संग्रहकै व्यवहारादिककरि पांच होय हैं । बहुरि व्यवहारकै ऋजुसूत्रादिककरि च्यारि होय हैं । बहुरि ऋजुसूत्रके शब्दादिककरि तीन होय हैं। बहुरि शब्दके समभिरूढादिककरि दोय होय हैं ॥ बहुरि समभिरूढकै एवंभूत नयकरि एकही होय है । ऐसे मूलनयनिकै तो विधिनिषेधकरि इकइस सप्तभंगी
भई । बहुरि नैगमनयके नव भेद हैं अर संग्रहके पर अपर करि दोय भेद हे तातें तिनके विधिनिषेधते | अठारह सप्तभांगी होय है । ऐसही पर अपर व्यवहारकै अठारह होय है। बहुरि ऋजुसूत्रकरि नव
ఆయననుండునందనుడగులుతుందన
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