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॥ सर्वार्थसिद्धियचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २०९ ॥
क्रिया करना । एकही कहता जो समभिरूढ ताते अल्पविषय भया । ऐसें उत्तरोत्तर अल्पविषय है।
इहां दृष्टांत, जैसे एक नगरवि एक वृक्ष उपरि पक्षी बोले था, ताकू काहूं. कही, या नगर. विर्षे पक्षी बोलै है । काढूनें कही, या नगरमें एक वृक्ष है तामें बोले है । काहनें कही, या वृक्षका एक बडा डाला है तामैं बोले है । काहूंनें कही, इस डालेमें एक शाखा छोडी डाली है तामें बोले है। काहू. कही, इस डाहलेके एक देशविर्षे बैठा बोले है । काहूनें कही, पक्षी अपने सरीरवि बोले है । काहूनें कही वाके शरीरमें कंठ है तामैं बोले है । ऐसै उत्तरोत्तर विषय छूटता गया । सो यह अनुक्रमतें इनि नयनिके वचन जानने । नैगमनयनैतौ वस्तुका सत् असत् दोऊ लिये। संग्रह नयनें सत्ही लीया । व्यवहार– सत्का एक भेद लीया। ऋजुसूत्रनें वर्तमानकही लीया । शब्दनै वर्तमान सत्मैं भी भेदकरि एक कार्य पकड्या । समभिरूढने वा कार्यके अनेक नाम थे तिसमें एक नामकू पकड्या । एवंभूतन तामैभी जिस नामकू पकड्या तिसही क्रियारूप परिणामताकू पकड्या। ऐसही जिस पदार्थकू साधिये तापरि सर्वहीपरि ऐसै नय लगाय लैनें । बहुरि पहला पहला नय तौ कारणरूप है। अगिला अगिला कार्यरूप है । ता कार्यकी अपेक्षा स्थूलभी कहिये । ऐसे ये नय पूर्वपूर्वतो विरुद्धरूप महाविषय है। उत्तर उत्तर अनुकूलरूप अल्पविषय है । जातें पहला नयका विषय
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