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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २०५ ॥
बहुरि कारकव्यभिचार ‘सेना पर्वतमधिवसति' इहां सेना पर्वतके समीप वसे है ऐसा आधा. है, सो सप्तमी विभक्ति चाहिये, तहां द्वितीया कही । तातें कारकव्यभिचार भया। याप्रकार व्यवहार नय है ताहि अन्याय मानै है । जातें अन्य अर्थका अन्य अर्थकरि संबंध होय नाही । जो अन्य अर्थका अन्यतें संबंध होय, तो घटका पट होय जाय, पटका महल हो जाय । तातें जैसा लिंग आदि होय तैसाही न्याय है । इहां कोई कहै, लोकवि तथा शास्त्रविर्षे विरोध आवेगा। ताकू कहिये, विरोध आवै तौ आवो, इहां तौ यथार्थस्वरूप विचारिये है । औषधी रोगीकी इच्छाकै अनुसार तौ है नांही ॥
आगें, समभिरूढनयका लक्षण कहे हैं । नाना अर्थनिविर्षे समभिरोहणात् कहिये प्राप्त होने तें समभिरूढ है । जातें एकशब्दके अनेक अर्थ हैं, तिनिमेंसू कोई एक अर्थकू ग्रहणकरि तिसहीत कह्या करे जैसें, गौ ऐसा शब्द वचनादि अनेक अर्थविर्षे वते है। तौभी गऊ नाम पशका ग्रहण करि तिसहीकू गऊ कहै । अथवा शब्दका कहना है, सो अर्थगतिकै अर्थि है । तहां एक अर्थका
एकही शब्दकरि गतार्थपणा है, तातें वाका दुसरा पर्यायशब्द कहिये नाम कहनां सो निष्प्रयोजन || है । इहां कोई कहै, शब्दका तो भेद है । ताकू कहिये अर्थभेदभी अवश्य चाहिये । ऐसें यहु समभि
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