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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २०३ ॥
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पुरुषलिंग कहनां। बहुरि एकही वस्तूकै तीनूं लिंग कहनां, जैसे, तारका यहु स्त्रीलिंग है, ताहीकू पुष्यः ऐसा पुरुषलिंग तथा नक्षत्र ऐसा नपुंसकलिंग कहनां । इत्यादि लिंगव्यभिचार है । बहुरि संख्याव्यभिचार एकवचनविर्षे द्विवचन, जैसें नक्षत्र ऐसा एकवचन है, तहां पुनर्वसू ऐसा द्विवचन कहनां । बहुरि एकवचनविर्षे बहुवचन, जैसे नक्षत्र ऐसा एकवचन है, तहां शतभिषजा ऐसा बहुवचन कहनां। बहुरि द्विवचनविर्षे एकवचन, जैसें 'गोदौ' ऐसा द्विवचन है, तहां ग्रामः ऐसा एकवचन कहनां । बहुरि द्विवचनविर्षे बहुवचन, जैसे, पुनर्वसू ऐसा द्विवचन है, तहां पंचतारका ऐसा बहुवचन कहनां । बहुरि बहुवचनविर्षे एकवचन, जैसे, आम्रा ऐसा बहुवचन है, तहां वन ऐसा एकवचन कहनां । | बहुरि बहुवचनवि द्विवचन, जैसे, देवमनुष्याः ऐसा बहुवचन है, तहां उभी राशी ऐसा द्विवचन कहनां । ऐसें संख्याव्यभिचार है ॥
बहुरि साधनव्यभिचार, ताकू पुरुषव्यभिचारभी कहिये “ एहि मन्ये रथेन यास्यसि । नहि यास्यसि । न यातस्ते पिता" याका अर्थ- एहि ऐसा मध्यमपुरुषका एकवचन है, तथापि याका 'एमि' ऐसा अर्थ करना, जो, मैं जाऊं हूं सो । ' मन्ये ' ऐसा उत्तमपुरुषका एकवचन है, तहां | मध्यमपुरुषका ' मन्यसे' ऐसा कहना, जो, तूं ऐसे माने है । जामें रथेन ' कहिये रथ चढि ।
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