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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान १९९ ॥ सुखजीवपणां है । इहां सुख तौ अर्थपर्याय है सो विशेषण है । बहुरि जीवित व्यंजनपर्याय है सो विशेष्य है, तातें मुख्य है । यहु अर्थव्यंजनपर्यायनैगम है । बहुरि संसारविषै सत् विद्यमान सुख है। सो क्षणमात्र है । इहां सत् शुद्धद्रव्य है सो विशेषण है। सुख है सो अर्थपर्याय है सो विशेष्य है, तातैं मुख्य है । यह शुद्धद्रव्य अर्थपर्याय नैगम भया । बहुरि विषयी जीव है सो एक क्षण सुखी है हां जीव है सो अशुद्धद्रव्य है सो विशेष्य है । सुख है सो अर्थपर्याय है सो विशेषण है तातें गौण है । यह अशुद्धद्रव्य अर्थपर्यायनैगम भया || बहुरि चित्सामान्य है सो सत् है इहां सत् ऐसा शुद्धद्रव्य है सो तौ विशेषण है तातें गौण है । चित् है सो व्यंजनपर्याय है सो विशेष्य है तातें मुख्य है । ताका यहु शुद्धद्रव्यव्यंजन पर्यायनैगम भया || बहुरि जीव है सो गुणी है इहां जीव है सो अशुद्धद्रव्य है, सो विशेष्य है सो मुख्य है । बहुरि गुण है सो व्यंजनपर्याय है, सो विशेषण है। तैं गौण है । यह अशुद्धद्रव्यव्यंजनपर्याय नैगम भया । ऐसें नैगमनयके नव भेद है ते संग्रहादि छह मिलै पंधरा हो है ॥
आगें संग्रहनयका लक्षण कहै हैं । अपनी एक जातिके वस्तुनिकं अविरोध करिये एकप्रकारपणांकूं प्राप्तिकरि जिनमें भेद पाईये ऐसे विशेषनिकूं अविशेषकरि समस्त ग्रहण करें ताकूं संग्रहनय
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