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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १९६ ॥
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प्रकृतिके विकार प्रधान १ । अहंकार २। कर्मेंद्रिय ५। ज्ञानेंद्रिय ५। मन १ । स्पर्श रस गंध वर्ण शब्द ए ५। तन्मात्रा; बहुरि पृथ्वी अप्तेज वायु आकाश ए पंचभूत ऐसे तेईस प्रकृति के विकार बहुरि एक पुरुष निर्विकार ऐसे पचीस तत्त्व कहै हैं। ते सर्वही द्रव्यपर्यायसामान्यविर्षे अंतर्भूत है । कथंचित् वस्तुधर्म हैं । तातें सुनयके विषय हैं। बहुरि अन्यवादी इनिळू सर्वथाएकांत अभिप्रायकरि कल्पे हैं । सो तिनिका अभिप्राय मिथ्या है ऐसें जाननां ।
आगें नयनिका विशेषलक्षण कहैं हैं । तहां प्रथमही नैगमका कहै हैं । अपने सन्मुख वर्तमानकालविर्षे पूर्ण रच्या हुवा वस्तु नांही, ताका अपने ज्ञानविर्षे संकल्प करनां जो ‘यहु वस्तु इस वर्तमानकालमैं है-' ऐसे संकल्पका ग्रहण करनेवाला अभिप्राय सो नैगमनय है । इहां उदाहरण, जैसे काह पुरुषकू कोई पुरुष कूहाडी लीये चालताकू पूछी "तूं कौण अर्थ जाय है? " तब वह कहै, में प्रस्थ लेनेकू जाऊं हूं । तहां वाकै प्रस्थ अवस्था निकट बण्या विद्यमान नांही । जायकरि लकडी काटि प्रस्थ वणावैगा, तब होगा। परंतु वाके मनविर्षे ज्ञानमैं प्रस्थका संकल्प विद्यमान है, सोही इस नैगमनयका विषय है। इहां प्रस्थ ऐसा परिमाणविशेषका नाम है । लकडीके पाई, माणी इत्यादि धान्य तोलणेकै बणे हैं, ताका नाम है । तथा कोई याका अर्थ लकडीका भाराभी कहै हैं ।
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