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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १९४ ॥
| तावि अविरोधकरि हेतुरूप अर्पण करनेते साध्यके विशेषका यथार्थस्वरूप प्राप्त करने कू व्यापाररूप
जो प्रयोग करना सो नयका सामान्यलक्षण है । इहां कोई कहै नयका सामान्यलक्षण कीया सो| हेतुरूपही भया, जाते साध्यकू प्राप्त करै सोही हेतु । ताकू कहिये, हेतु तौ जिस साध्यकू साधै | तहांही रहै । बहुरि लक्षण है सो सर्वनयनिमें व्यापै, तातै सामान्यलक्षण हेतु नाही है । बहुरि कोई । कहै, एकधर्मकै दूसरा धर्मतें विरोध है । सो धर्मके ग्राहक नयनिकैभी विरोध है । तहां अविरोध कैसै | होय ? ताकू कहिये, जो प्रत्यक्ष अनुमानकरि बाधित ऐसा सर्वथा एकांतरूपकरि ग्रहण करनां सो | तौ विरुद्धरूप है- नयाभास है । बहुरि जो वस्तुका धर्म कथंचित्प्रकार अनेकांतस्वरूप ग्रहण करै,
सो सर्वनय समानधर्मरूप भये । तिनिमें विरोध काहेका ? जैसे साध्यवस्तुका समानधर्मरूप दृष्टांत | | कहिये , तामें विरोध नाही तैसें इहामी अविरोध है । याका उदाहरण, जैसें सर्ववस्तु सद्रूप है । जातें अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकू लीये है ॥
सो यह नय संक्षेपते दोय प्रकार है , द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक ऐसें । तहां द्रव्य तथा सामान्य तथा उत्सर्ग तथा अनुवृत्ति ए सर्व एकार्थ है। ऐसा द्रव्य जाका विषय सो द्रव्यार्थिक है । बहुरि . पर्याय तथा विशेष तथा अपवाद तथा व्यावृत्ति ए सर्व एकार्थ है । ऐसा पर्याय जाका विषय सो ||
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