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।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदजाकृतॉ ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १९३ ॥
विपर्यय हो है । जैसै केई नियोगकू वाक्यार्थ कहै है । केई भावनाकू वाक्यार्थ कहै है । केई धात्व. र्थकू वाक्यार्थ कहै है । केई विधिळू वाक्यार्थ कहै है । केई यंत्रारूढकू वाक्याथ कहै है । केई अन्यापोह कहिये निषेधकू वाक्यार्थ कहै है । इत्यादि वाक्यार्थविर्षे विपर्यय है । तिनिकी चरचा श्लोकवार्तिक तथा देवागमस्तोत्रकी टीका अष्टसहस्रीविर्षे है तहांतें समझणी ॥ बहुरि अवधिज्ञानवि विपर्यय देशावधिही होय है। परमावधि सर्वावधि मनःपर्यय है ते केवलज्ञानकीज्यौं विपर्ययरूप नाही होय है । जातें सम्यग्दर्शन विनां होते नाही । ऐसै प्रमाण अप्रमाणका भेद दिखावनेकै अर्थि विपर्ययज्ञानका स्वरूप कह्या ॥
आगें, प्रमाण तौ परोक्ष प्रत्यक्षरूप दोय प्रकार ज्ञानही कह्या । बहुरि प्रमाणके एकदेश जे | नय ते “प्रमाणनयैरधिगमः।” ऐसा सूत्रविर्षे प्रमाणकै अनंतर नय नाममात्र कहे तिनका निर्देश करना । ऐसा प्रश्न होते सूत्र कहै है
॥ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवम्भूता नयाः ॥३३॥ ___ याका अर्थ- नैगम , संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शद , समभिरूढ, एवंभूत ऐसे ये सात | नय हैं ॥ इनिका सामान्यलक्षण बहुरि विशेषलक्षण कहनेयोग्य है । तहां अनेकधर्मस्वरूप जो वस्तु
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