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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदनाकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १९१ ॥ विभंगज्ञान ए तो सहजविपर्यय हैं। जाते ए परके उपदेशविना स्वयमेव प्रवर्ते है । बहुरि श्रोत्र मतिपूर्वक इरुताज्ञान है सो आहार्यविपर्यय है । जाते यह परके उपदेशतें प्रवर्ते हे । तहां सत्के विर्षे असत्का ज्ञान परोपदेशतें प्रवर्ते है । सोही कहिये- स्वरूप” सर्ववस्तु सत्स्वरूप है । तोभी शून्यवादी असत्स्वरूपही कहै है । बहुरि ग्रहणकरणेयोग्य वस्तु तथा ग्रहणकरणेवाला ज्ञान दोऊ स्वरूपते सद्प | है । तौभी संवेनाद्वैतवादी एक संवेदनहीकू सत् कहै है । दूसराकू असत् ही कहै है । तथा चित्राद्वैत
कहै है । तथा पुरुषादैत कहै है। तथा शब्दाद्वैत कहै है। तथा बाह्यपदार्थ भिन्न हैं तिनिकू एक विज्ञानांडकी कल्पना करै है । बहुरि बाह्यतरंग पदार्थ सादृश्यभी है । तिनिळू सर्वथाविसदृशही कहै | है । बहुरि विसदृशकू सर्वथा सदृशही कहै है । बहुरि द्रव्य होतेभी पर्यायमात्र कहै है । पर्याय छतै
द्रव्यमात्रही कहै है । बहुरि द्रव्यपर्याय अभेद होतेभी भेदरूपही कहै है । तथा अवक्तव्यही कहै है । | बहुरि ध्रौव्यरूप होतेही उत्पादव्ययरूपही कहै है । तैसेही विशेषकरि जीव होतेभी जीवका नास्ति
कहनां । बहुरि अजीव होतेभी तिसका असत्त्व कहनां । बहुरि कर्मका आस्रव होतभी ताका अभाव || कहनां । तैसेंही संवर, निर्जरा, मोक्ष, होतेभी तिनिका अभाव कहनां । ऐसेंही जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म,
आकाश, काल, द्रव्यनिके होतेभी निनिका अभाव कहनां । इत्यादि अनेक प्रकार छती वस्तूकू
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