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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १८९ ॥
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ऐसें मत्यादिज्ञानविर्षे जो घटपटादिकका जैसाका तैसा ज्ञान है तौभी विपर्ययही जानना | सोही कहिये हैं, कोई आत्माकैविषै मिथ्यादर्शनका उदयतै परिणाम होय है । सो रूपादिकका ज्ञान
नेत्रादिककरि जैसाका तैसाभी होय तौभी तिसविषे कारणविपर्यास भेदाभेदविपर्यास स्वरूपविपर्यास ए तीन विपर्यास उपजावै है । तहां प्रथमही कारणविपर्यासकू कहै है । तहां रूपादिक नेत्रादिककरि | दीखै तो जैसेके तैसे दीखे, परंतु मिथ्यादृष्टि ताका कारण अन्यथा कल्पै । जैसे ब्रह्माद्वैतवादी कहै | है, रूपादिकनिका कारण एक अमूर्तिक नित्य ब्रह्मही है ब्रह्महीतै भये है। सांख्यमती कहै है रूपादिकनिका कारण अमूर्तिक नित्य प्रकृति है, प्रकृतितै ए उपजै है ॥ बहुरि नैयायिक वैशेषिक - | मती कहै है, पृथ्वी आदि जातिभेदरूप परमाणु हैं, तिनिमै पृथ्वीविषै तो स्पर्शादि च्यारि गुण है। | बहुरि अविषै गंधवर्जित तीन गुण है । बहुरि अनिविषै स्पर्श वर्ण ए दोय गुण हैं । बहुरि वायुविषे | एक स्पर्शगुणही है । ऐसै च्यारिही अपनी अपनी जातिके स्कंधरूप कार्य निपजावै है ॥ बहुरि बौद्धमती कहै है, पृथ्वी आदि च्यारि भूत है । इनिकै स्पर्श रस गंध वर्ण ए च्यारि भौतिकधर्म है ।
इनि आठनिका समुदायरूप परमाणु होय है। ता• अष्टक नाम कहिये है ॥ बहुरि चार्वाकमती || कहै हैं, पृथ्वी अप् तेज वायु ए च्यारि काठिण्यादि गुण, तथा द्रवत्वादि, उष्णत्वादि, ईरणत्वादि, |
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